कार्तिक मास में दीपदान का विशेष महत्व है । श्री पुष्कर पुराण में आता है :-
तुलायाँ तिलतैलेन सायंकाले समायते ।
आकाशदीपं यो दद्यान्मासमेकं हरिं प्रति ॥
महती श्रियमाप्नोति रूपसौभाग्यसम्पदम ॥
जो मनुष्य कार्तिक मास में सन्ध्या के समय भगवान श्री हरी के नाम से तिल के तेल का दीप जलाता है, वह अतुल लक्ष्मी, रूप सौभाग्य, और सम्पत्ति को प्राप्त करता है । नारद जी के अनुसार दीपावली के उत्सव को द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा – इन पांच दिनों तक मानना चाहिये । इनमें भी प्रत्येक दिन अलग अलग प्रकार की पुजा का विधान है ।
गौवत्स द्वादशी – महत्व
दीपावली के पाँचो दिन की जानेवाली साधनाएँ तथा पूजाविधि कम प्रयास में अधिक फल देने वाली होती होती है और प्रयोगों मे अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होती है ।
गौवत्स द्वादशी – व्रत-कथा।
सतयुग की बात है, महर्षि भृगु के आश्रम में भगवान् शंकर के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेक मुनि तपस्या कर रहे थे । एक दिन शिव, पार्वती और कार्तिकेय स्वयं उन मुनियों को दर्शन देने के लिए क्रमशः बूढ़े ब्राह्मण, गाय एवं बछड़े के रूप में उस आश्रम में आए । बूढ़े ब्राह्मण का वेश धरे भगवान् शिव ने महर्षि भृगु को कहा कि ‘हे मुनि! मैं यहॉं स्नान करके जम्बूक्षेत्र में जाऊँगा और दो दिन बाद लौटूँगा, तब तक आप इस गाय और बछड़े की रक्षा करना।’ भृगु सहित अन्य मुनियों से जब गाय और बछड़े की रक्षा का आश्वासन मिल गया तो भगवान् शिव वहॉं से चल दिए । थोड़ी दूर चलकर उन्होंने बाघ का रूप रख लिया और पुनः आश्रम आ गए और गाय तथा बछड़े को डराने लगे । ऋषिगण भी बाघ को देखकर डरने लगे, किन्तु वे गाय एवं बछड़े की रक्षा के प्रयास भी कर रहे थे, अन्त में उन्होंनें ब्रह्मा से प्राप्त भयंकर आवाज करने वाले घंटे को बजाना आरंभ किया । घंटे की आवाज सुनकर बाघ अदृश्य हो गया और भगवान् शिव अपने सही रूप में प्रकट हो गए । पार्वती जी तथा कार्तिकेयजी भी अपने सही रूप में प्रकट हो गए । ऋृषियों ने उनकी पूजा की । चूँकि उस दिन कार्तिक मास की द्वादशी थी, इसलिए यह व्रत गौवत्स द्वादशी के रूप में आरंभ हुआ ।
उक्त प्रक्रिया के उपरान्त ही व्रत खोलना चाहिए ।
गोवत्स द्वादशी – कार्तिक मास की द्वादशी को गोवत्स द्वादशी कहते हैं । इस दिन दूध देने वाली गाय को उसके बछड़े सहित स्नान कराकर वस्त्र ओढाना चाहिये, गले में पुष्पमाला पहनाना , सिंग मढ़ना, चन्दन का तिलक करना तथा ताम्बे के पात्र में सुगन्ध, अक्षत, पुष्प, तिल, और जल का मिश्रण बनाकर निम्न मंत्र से गौ के चरणों का प्रक्षालन करना चाहिये ।
क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते ।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्घ्य नमो नमः ॥
(समुद्र मंथन के समय क्षीरसागर से उत्पन्न देवताओं तथा दानवों द्वारा नमस्कृत, सर्वदेवस्वरूपिणी माता तुम्हे बार बार नमस्कार है।)
पूजा के बाद गौ को उड़द के बड़े खिलाकर यह प्रार्थना करनी चाहिए-
“सुरभि त्वं जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता ।
सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस ॥
ततः सर्वमये देवि सर्वदेवलङ्कृते।
मातर्ममाभिलाषितं सफलं कुरू नन्दिनी ॥“
(हे जगदम्बे ! हे स्वर्गवसिनी देवी ! हे सर्वदेवमयि ! मेरे द्वारा अर्पित इस ग्रास का भक्षण करो । हे समस्त देवताओं द्वारा अलंकृत माता ! नन्दिनी ! मेरा मनोरथ पुर्ण करो।) इसके बाद रात्रि में इष्ट , ब्राम्हण , गौ तथा अपने घर के वृद्धजनों की आरती उतारनी चाहिए।
धनतेरस – दुसरे दिन कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन को धनतेरस कहते हैं । भगवान धनवंतरी ने दुखी जनों के रोग निवारणार्थ इसी दिन आयुर्वेद का प्राकट्य किया था । इस दिन सन्ध्या के समय घर के बाहर हाथ में जलता हुआ दीप लेकर भगवान यमराज की प्रसन्नता हेतु उन्हे इस मंत्र के साथ दीप दान करना चाहिये-
मृत्युना पाशदण्डाभ्याम् कालेन श्यामया सह ।
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम ॥
(त्रयोदशी के इस दीपदान के पाश और दण्डधारी मृत्यु तथा काल के अधिष्ठाता देव भगवान देव यम, देवी श्यामला सहित मुझ पर प्रसन्न हो।)
नरक चतुर्दशी – नरक चतुर्दशी के दिन चतुर्मुखी दीप का दान करने से नरक भय से मुक्ति मिलती है । एक चार मुख ( चार लौ ) वाला दीप जलाकर इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिये –
” दत्तो दीपश्वचतुर्देश्यां नरकप्रीतये मया ।
चतुर्वर्तिसमायुक्तः सर्वपापापनुत्तये ॥“
(आज नरक चतुर्दशी के दिन नरक के अभिमानी देवता की प्रसन्नता के लिये तथा समस्त पापों के विनाश के लिये मै चार बत्तियों वाला चौमुखा दीप अर्पित करता हूँ।)
यद्यपि कार्तिक मास में तेल नहीं लगाना चाहिए, फिर भी नरक चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल-मालिश (तैलाभ्यंग) करके स्नान करने का विधान है। ‘सन्नतकुमार संहिता’ एवं धर्मसिन्धु ग्रन्थ के अनुसार इससे नारकीय यातनाओं से रक्षा होती है। जो इस दिन सूर्योदय के बाद स्नान करता है उसके शुभकर्मों का नाश हो जाता है। –
दीपावली – अगले दिन कार्तीक अमावस्या को दीपावली मनाया जाता है । इस दिन प्रातः उठकर स्नानादि करके जप तप करने से अन्य दिनों की अपेक्षा विशेष लाभ होता है । इस दिन पहले से ही स्वच्छ किये गृह को सजाना चाहिये । भगवान नारायण सहित भगवान लक्ष्मी जी की मुर्ती अथवा चित्र की स्थापना करनी चाहिये तत्पश्चात धूप दीप व स्वस्तिवाचन आदि वैदिक मंत्रो के साथ या आरती के साथ पुजा अर्चना करनी चाहिये । इस रात्रि को लक्ष्मी भक्तों के घर पधारती है ।
अन्नकूट दिवस / गोवर्धन-पूजा – पांचवे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट दिवस कह्ते है । धर्मसिन्धु आदि शास्त्रों के अनुसार गोवर्धन-पूजा के दिनगायों को सजाकर, उनकी पूजा करके उन्हें भोज्य पदार्थ आदि अर्पित करने का विधान है। इस दिन गौओ को सजाकर उनकी पूजा करके यह मंत्र करना चाहिये,गौ-पूजन का मंत्र –
लक्ष्मीर्या लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।
घृतं वहति यज्ञार्थ मम पापं त्यपोहतु ॥
(धेनु रूप में स्थित जो लोकपालों की साक्षात लक्ष्मी है तथा जो यज्ञ के लिए घी देती है , वह गौ माता मेरे पापों का नाश करे । रात्री को गरीबों को यथा सम्भव अन्न दान करना चाहिये । इस प्रकार पांच दिनों का यह दीपोत्सव सम्पन्न होता है ।
विशेषता – बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध के समर्थकों व अनुयायियों ने २५०० वर्ष पूर्व हजारों-लाखों दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। आदि शंकराचार्य के निर्जीव शरीर में जब पुन: प्राणों के संचारित होने की घटना से हिन्दू जगत अवगत हुआ था तो समस्त हिन्दू समाज ने दीपोत्सव से अपने उल्लास की भावना को दर्शाया था।
दीपावली के सन्दर्भ में एक अन्य ऐतिहासिक घटना भी जुड़ी हुई है। मुगल सम्राट जहांगीर ने ग्वालियर के किले में भारत के सारे सम्राटों को बंद कर रखा था। इन बंदी सम्राटों में सिखों के छठे गुरू हरगोविन्द जी भी थे। गुरू गोविन्द जी बड़े वीर दिव्यात्मा थे। उन्होंने अपने पराक्रम से न केवल स्वयं को स्वतंत्र करवाया, बल्कि शेष राजाओं को भी बंदी-गृह से मुक्त कराया था और इस मुक्ति पर्व को दीपोत्सव के रूप में मनाकर सम्पूर्ण हिन्दू और सिख समुदाय के लोगों ने अपनी प्रसन्नता को व्यक्त किया था।
गौवत्स द्वादशी – गोत्रिरात्र व्रत
गोत्रिरात्र व्रत कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक किया जाता है । यह व्रत त्रिदिवसीय है । इसका आरम्भ सूर्योदय व्यापिनी कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से होता है । यदि सूर्योदय व्यापिनी तिथि दो दिन हो अर्थात् त्रयोदशी की वृद्धि हो, तो यह पहले दिन से किया जाता है । गौशाला में लगभग ४ हाथ चौड़ी एवं ८ हाथ लम्बी एक वेदी का निर्माण किया जाता है । वेदी के ऊपर सर्वतोभद्रामण्डल का निर्माण किया जाता है । उसके ऊपर एक कृत्रिम वृक्ष बनाया जाता है, जिसमें फल और पुष्प लगे होते है तथा उस पर पक्षी बैठे होते है । इस कृत्रिम वृक्ष के नीचे ही मण्डल के मध्य भाग में भगवान् गोवर्धन (श्रीकृष्ण) की, उनके बायीं ओर रुक्मिणी,मित्रविन्दा, शैब्या और जाम्बवती की तथा दाहिने भाग में सत्यभामा, लक्ष्मणा, सुदेवा और नाग्रजिती की मूर्तियॉं स्थापित की जाती हैं । उनके सामने के भाग में नन्दबाबा और पीछे के भाग में बलभद्र, यशोदा की तथा श्रीकृष्ण के सामने सुरभि, सुभद्रा एवं कामधेनु नामक गायों की मूर्तियॉं स्थापित की जाती हैं । अगर ये मिट्टी की निर्मित की गयी है, तो इनपर सुनहरा रंग होना चाहिए इन १६ मूर्तियों की अर्घ्य, आचमन, स्नान, रोली, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य से क्रमशः पूजा की जाती है । पूजन में नाम मन्त्रों का प्रयोग करना चाहिए । इनके नाम मन्त्र निम्नानुसार है ।
१. गोवर्धनः
ॐ गोवर्धनदेवायै नमः।
२. रुक्मिणीः
ॐ रुक्मिणीदेव्यै नमः ।
३. मित्राविन्दाः
ॐ मित्राविन्दादेव्यै नमः ।
४. शैब्याः
ॐ शैब्यादेव्यै नमः ।
५. जाम्बवतीः
ॐ जाम्बवतीदेव्यै नमः।
६. सत्यभामाः
ॐ सत्यभामादेव्यै नमः।
७. लक्ष्मणाः
ॐ लक्ष्मणादेव्यै नमः।
८. सुदेवाः
ॐ सुदेवादेव्यै नमः।
९. नाग्नजितीः
ॐ नाग्नजितीदेव्यै नमः ।
१०. नन्दबाबाः
ॐ नन्दबाबादेवाय नमः।
११. बलभद्रः
ॐ बलभद्राय नमः।
१२. यशोदाः
ॐ यशोदादेव्यै नमः।
१३.सुरभिः
ॐ सुरभ्यै नमः।
१४.सुनन्दाः
ॐ सुनन्दाये नमः।
१५.सुभद्राः
ॐ सुभद्रायै नमः ।
१६. कामधेनुः
ॐ कामधेन्वै नमः।
अन्तमें निम्मलिखित मन्त्र से भगवान् गोवर्धन सहित सभी देवी-देवताओं की अर्घ्य प्रदान करे ।
गवामाधार गोविन्दरुक्मिणीवल्लभ प्रभो । गोपगोपीसमोपेत गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तुते ॥
निम्नलिखित मन्त्र से गायों को अर्घ्य प्रदान करे ।
रुद्राणां चैव या माता वसूनां दुहिता च या । आदित्यानां च भगिनी सा नः शान्ति प्रयच्छतु ॥
उपर्युक्त मन्त्रों से गौशाला में उपस्थित गायों को भी अर्घ्य देना चाहिए और निम्नलिखित मन्त्रों से गौशाला में उपस्थित गायों को घास खिलानी चाहिए ।
सुरभी वैष्णवी माता नित्यं विष्णुपदे स्थिता । प्रतिगृह्नातु मे ग्रासं सुरभी मे प्रसीदतु ॥
उपर्युक्त पूजन के उपरान्त मौसम के अनुरूप फल एवं पुष्प तथा पक्वान्न का भोग लगाएँ । उसके पश्चात् । बॉंस से निर्मित डलियाओं में सप्तधान्य और सात प्रकार की मिठाई रखकर सौभाग्यवती स्त्रियों को देना चाहिए ।
उपर्युक्त प्रकार से तीन दिन कृत्य किए जाते हैं । चतुर्थ दिन अर्थात् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को प्रातःकाल गायत्री मन्त्र से तिल युक्त हवन सामग्री से १०८ आहुतियॉं देकर व्रत का विसर्जन करना चाहिए ।
यह व्रत पुत्र, सुख एवं सम्पत्ति के लाभ के लिए किया जाता है ।
गोवर्धन पूजा
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धनोत्सव के अन्तर्गत भी गायों का पूजन किया जाता है । यद्यपि इस दिन मुख्यतः गोवर्धन की पूजा की जाती है, लेकिन गोवर्धन के साथ-साथ गायों के पूजन का भी विधान है ।.
धनत्रयोदशी – महत्व
पंचदिनात्मक दीपावली पर्व का पहला दिन धनत्रयोदशी है । सम्भवतः आयुर्वेद के जनक भगवान धन्वन्तरि के प्राकट्य का दिन होने के कारण कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को ‘धनत्रयोदशी’ कहा जाता है । पौराणिक मान्यता है कि समुद्र-मन्थन के दौरान भगवान् धन्वन्तरि इसी दिन समुद्र से हाथ में अमृतकलश लेकर प्रकट हुए थे । इसलिए आज भी कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को भगवान् धन्वन्तरि के प्राकट्योत्सव के रूप में मनाया जाता है । इस दिन प्रातःकाल उठकर भगवान धन्वन्तरि के निमित्त व्रत करने एवं उनके पूजन करने का संकल्प लिया जाता है और दिन में धन्वन्तरि का पूजन किया जाता है । आयुर्वेद चिकित्सकों के लिये यह विशेष दिन है । आयुर्वेद विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों तथा चिक्कित्सालयों में इस दिन भगवान् धन्वन्तरि की विशेष पूजा-अर्चना होती है ।
यह आयुर्वेद के प्राकट्य का भी दिन है । भगवान् धन्वन्तरि के एक हाथ में अमृतकलश और दूसरे हाथ में आयुर्वेदशास्त्र है । इस कारण इस दिन आयुर्वेद के ग्रन्थों का भी पूजन किया जाता है । आयुर्वेद को ‘उपवेद’ की संज्ञा दी गई है ।
धनत्रयोदशी का दूसरा महत्त्व यम के निमित्त दीपदान से सम्बन्धित है । यमराज मृत्यु के देवता हैं । वे कर्मफल का निर्णय करने वाले हैं । धनत्रयोदशी के दिन उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके निमित्त दीपदान किया जाता है । यह दीपदान प्रदोषकाल में करना चाहिए । ऐसा करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है ।
धनत्रयोदशी का तीसरा महत्त्व गोत्रिरात्र व्रत है । स्कन्दपुराण के अनुसार यह व्रत कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या के दिन तक किया जाता है । इस प्रकार यह त्रिदिवसीय व्रत है । इसमें व्रत का आरम्भ सूर्योदय व्यापिनी त्रयोदशी तिथि से होता है । इस बार यह व्रत 4 नवम्बर को है । इसमें भगवान् श्रीकृष्ण एवं गायों की पूजा की जाती है । प्रथम दिन इस त्रिदिवसीय व्रत का संकल्प लेना चाहिऐ और चौथे दिन अर्थात् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का विसर्जन कर गोवर्धन उत्सव मनाना चाहिए ।
इस वर्ष गोवत्स द्वादशी ३ नवम्बर को है । फलतः गोवत्स द्वादशी का व्रत इस बार धनत्रयोदशी के दिन ही होगा । आधुनिक समय में धनत्रयोदशी को धन से जोड़ा गया है और यह माना जाता है कि यह दिन धन के संकलन का एवं स्वर्णादि बहूमूल्य धातुओं के संग्रह का दिन है । इसी चलते मध्याह्न में सोने-चॉंदी के बर्तन, सिक्के एवं आभूषण खरीदने का रिवाज विद्यमान है ।
त्योहारों पर रंगोली निर्माण की परम्परा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है । इस पंचदिनात्मक दीपावली महापर्व के सभी दिनों में घर के सभी प्रमुख स्थलों की धुलाई करके दोपहर में रंगोली का निर्माण करना चाहिए । रंगोली में फूल-पत्तियों के साथ-साथ कलश, स्वस्तिक आदि मंगल चिह्नों का भी निर्माण करना चाहिए । इसके अतिरिक्त अशोक, आम आदि वृक्षों के पत्तों तथा फूलों से बन्दनवार का निर्माण करना चाहिए और उसे घर के प्रवेश द्वारों तथा प्रमुख कक्षों के प्रवेश द्वारों पर लगाना चाहिए ।.
एक अन्य मान्यता के अनुसार धन्वन्तरि आयुर्वेद की एक परम्परा के ही प्रवर्तक हैं । अन्य परम्पराओं में इन्द्र, भरद्वाज, अश्विनीकुमार, सुश्रुत, चरक आदि हैं । भाव मिश्र ने अपने ग्रन्थ ‘भावप्रकाश’ मे ऐसी चार परम्पराओं का उल्लेख किया है । इन सभी परम्पराओं में धन्वन्तरि एवं अश्विनी कुमार की परम्परा ही प्रमुख है । ज्ञातव्य रहे कि अश्विनी कुमार सूर्य एवं संज्ञा के पुत्र हैं । वे देवताओं के चिकित्सक हैं । ब्रह्माजी ने दक्ष प्रजापति को आयुर्वेद की शिक्षा दी थी । दक्ष प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने शिक्षा प्राप्त की थी । ‘अश्विनीकुमारसंहिता’ के रचयिता सूर्यपुत्र अश्विनी कुमार ही हैं ।
‘आरोग्य देवता’, ‘देव-चिकित्सक’ एवं ‘आयुर्वेद के जनक’ के रूप में तीनों लोकों में विख्यात भगवान् धन्वन्तरि के प्राकट्य का दिन है धनत्रयोदशी । कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी इसी कारण भगवान धन्वन्तरि के प्राकट्योत्सव अथवा जयन्ती के रूप में मनायी जाती है । क्षीरसागर के मन्थन के दौरान भगवान् धन्वन्तरि एक हाथ में अमृत कलश लिए हुए और दूसरे हाथ में आयुर्वेदशास्त्र को लेकर प्रकट हुए थे । भगवान् धन्वन्तरि की गणना भगवान् विष्णु के 24 अवतारों में होती है । वे उनके अंशावतार माने जाते है ।
भगवान धन्वन्तरि ने देवादि के जीवन के लिए आयुर्वेदशास्त्र का उपदेश महर्षि विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत को दिया । सुश्रुत ने जनकल्याण के लिए ‘सुश्रुतसंहिता’ का निर्माण करके इसका प्रचार-प्रसार पृथ्वीलोक पर किया ।
स्वयं धन्वन्तरि भगवान् विष्णु के निर्देशानुसार काशिराज के वंश में अगले जन्म में उत्पन्न हुए और उन्होंने लोककल्याणार्थ ‘धन्वन्तरिसंहिता’ की रचना की ।
धनत्रयोदशी – पूजन-विधि
धनत्रयोदशी के दिन मध्याह्न काल में भगवान् धन्वन्तरि का पूजन किया जाना चाहिए । इसे न केवल आयुर्वेद चिकित्सा से जुड़े हुए व्यक्तियों को ही करना चाहिए , वरन् आरोग्य प्राप्ति के निमित्त सभी व्यक्तियों को करना चाहिऐ । जिन व्यक्तियों की शारीरिक एवं मानसिक बीमारियॉं आए दिन पीड़ित करती रहती है , उन्हें तो आरोग्य देवता एवं देव -चिकित्सक भगवान् धन्वन्तरि का धनत्रयोदशी को श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहिए और उनसे इन कष्टों के निवारण तथा आरोग्य की प्राप्ति की प्रार्थना करनी चाहिए ।
सर्वप्रथम भगवान् धन्वन्तरि का चित्र चौकी पर स्वच्छ वस्त्र बिछाकर स्थापित करें । साथ ही भगवान् गणपति की स्थापना धन्वन्तरि के समक्ष अक्षत से बने हुए स्वस्तिक या अष्टदल के केन्द्र में सुपारी पर मौली लपेटकर करें ।
सर्वप्रथम अपनें ऊपर तथा पूजन सामग्री पर जल छिड़ककर पवित्र करे । तदुपरान्त भगवान् गणपति का पूजन करें । उनके समक्ष अर्घ्य , आचमन एवं स्नान हेतु थोड़ा -सा जल छोड़ें । तदुपरान्त रोली का टीका लगाएँ । अक्षता लगाएँ । वस्त्र के रूप में मौली का एक टुकड़ा चढ़ाएँ । पुष्प चढ़ाएँ । नैवेद्य चढ़ाएँ और अन्त में नमस्कार करें ।
अब प्रधान देवता के रूप में भगवान् धन्वन्तरि का पूजन करना है । इसके लिए सर्वप्रथम हाथ में पुष्प और अक्षत लेकर अग्रलिखित श्लोक से भगवान् धन्वन्तरि का ध्यान करें :
देवान् कृशानसुरसंघनिपीडिताङ्गान्
दृष्ट्वा दयालुरमृतं विपरीतुकामः ।
पाथोधिमन्थनविधौ प्रकटोऽभवद्यो धन्वन्तरिः स भगवानवतात् सदा नः ॥
ध्यानार्थे अक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ॐ धन्वन्तरिदेवाय नमः ।
ऐसा कहते हुए भगवान धन्वन्तरि के समक्ष अक्षत -पुष्प छोड़ दें । इसके पश्चात् धन्वन्तरि जी का पूजन प्रारम्भ करें ।
तीन बार जल के छीटे दें और बोलें :
पाद्यं , अर्घ्यं , आचमनीयं समर्पयामि ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । स्नानार्थे जलं समर्पयामि ।
स्नान के लिए जल के छीटें दें ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । पंचामृतस्नानार्थे पंचामृतं समर्पयामि । पंचामृत से स्नान कराएँ ।
पंचामृतस्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि । शुद्ध जल से स्नान कराएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । सुवासितं इत्रं समर्पयामि । इत्र चढाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । वस्त्रं समर्पयामि । मौली का टुकड़ा अथवा वस्त्र चढ़ाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । गन्धं समर्पयामि । रोली या लाल चन्दन चढ़ाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । अक्षतान् समर्पयामि । चावल चढ़ाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । पुष्पं समर्पयामि । पुष्प चढ़ाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । धूपम् आघ्रापयामि । धूप करें ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । दीपकं दर्शयामि । दीपक दिखाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । नैवेद्यं निवेदयामि । प्रसाद चढ़ाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । आचमनीयं जलं समर्पयामि । जल के छीटें दें ।
ॐ धन्वन्तरये नमः। ऋतुफलं समर्पयामि । ऋतुफल चढ़ाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । ताम्बूलं समर्पयामि । पान , सुपारी , इलायची आदि चढाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । दक्षिणां समर्पयामि । नकदी चढ़ाएँ ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । कर्पूरनीराजनं समर्पयामि । कर्पूर जलाकर आरती करें ।
ॐ धन्वन्तरये नमः । नमस्कारं समर्पयामि । नमस्कार करें ।
अंत में निम्नलिखित मंत्र हाथ से हाथ जोड़कर प्रार्थना करें ।
अथोदधेर्मथ्यमानात् काश्यपैरमृतार्थिभिः । उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद् भुतः ॥
दीर्घपीवरदोर्दण्डः कम्ब्रुग्रीवोऽरुणेक्षणः । श्यामलस्तरुणः स्रग्वी सर्वाभरणभूषितः ॥
पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः । स्निग्धकुंञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः ॥
अमृतापूर्णकलशं विभ्रद् वलयभूषितः । स वै भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसमम्भवः ॥
इस प्रकार प्रार्थना करने के उपरान्त भगवान् धन्वन्तरि से अपने , अपने परिजनों एवं मित्रों के आरोग्य की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करें और साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करें ।
धनत्रयोदशी – यम-दीपदान
धनत्रयोदशी पर करणीय कृत्यों में से एक महत्त्वपूर्ण कृत्य है , यम के निमित्त दीपदान । निर्णयसिन्धु में निर्णयामृत और स्कन्दपुराण के कथन से कहा गया है कि ‘कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को घर से बाहर प्रदोष के समय यम के निमित्त दीपदान करने से अकालमृत्यु का भय दूर होता है । ’
यमदेवता भगवान् सूर्य के पुत्र हैं । उनकी माता का नाम संज्ञा है । वैवस्वत मनु , अश्विनीकुमार एवं रैवंत उनके भाई हैं तथा यमुना उनकी बहिन है । उनकी सौतेली माँ छाया से शनि , तपती , विष्टि , सावर्णि मनु आदि १० सन्तानें हुई हैं , जो कि उनके सौतेले भाई -बहिन भी है । वैसे यम शनि ग्रह के अधिदेवता माने जाते हैं ।
यमराज प्रत्येक प्राणी के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार गति देने का कार्य करते हैं । इसी कारण उन्हें ‘धर्मराज ’ कहा गया है । इस सम्बन्ध में वे त्रुटि रहित व्यवस्था की स्थापना करते हैं । उनका पृथक् से एक लोक है , जिसे उनके नाम से ही ‘यमलोक ’ कहा जाता है । ऋग्वेद (९ /११ /७ ) में कहा गया है कि इनके लोक में निरन्तर अनश्वर अर्थात् जिसका नाश न हो ऐसी ज्योति जगमगाती रहती है । यह लोक स्वयं अनश्वर है और इसमें कोई मरता नहीं हैं ।
यम की आँखें लाल हैं , उनके हाथ में पाश रहता है । इनका शरीर नीला है और ये देखने में उग्र हैं । भैंसा इनकी सवारी हैं । ये साक्षात् काल हैं ।
यमदीपदान
स्कन्दपुराण में कहा गया है कि कार्तिक के कृष्णपक्ष में त्रयोदशी के प्रदोषकाल में यमराज के निमित्त दीप और नैवेद्य समर्पित करने पर अपमृत्यु अर्थात् अकाल मृत्यु का नाश होता है । ऐसा स्वयं यमराज ने कहा था ।
यमदीपदान जैसा कि पूर्व में कहा गया है , प्रदोषकाल में करना चाहिए । इसके लिए मिट्टी का एक बड़ा दीपक लें और उसे स्वच्छ जल से धो लें । तदुपरान्त स्वच्छ रुई लेकर दो लम्बी बत्तियॉं बना लें । उन्हें दीपक में एक -दूसरे पर आड़ी इस प्रकार रखें कि दीपक के बाहर बत्तियों के चार मुँह दिखाई दें । अब उसे तिल के तेल से भर दें और साथ ही उसमें कुछ काले तिल भी डाल दें । प्रदोषकाल में इस प्रकार तैयार किए गए दीपक का रोली , अक्षत एवं पुष्प से पूजन करें । उसके पश्चात् घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी -सी खील अथवा गेहूँ से ढेरी बनाकर उसके ऊपर दीपक को रखना है । दीपक को रखने से पहले प्रज्वलित कर लें और दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए निम्मलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए चारमुँह के दीपक को खील आदि की ढेरी के ऊपर रख दें ।
मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन च मया सह । त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतामिति ।
अर्थात् त्रयोदशी को दीपदान करने से मृत्यु , पाश , दण्ड , काल और लक्ष्मी के साथ सूर्यनन्दन यम प्रसन्न हों । उक्त मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् हाथ में पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए यमदेव को दक्षिण दिशा में नमस्कार करें ।
ॐ यमदेवाय नमः । नमस्कारं समर्पयामि ॥
अब पुष्प दीपक के समीप छोड़ दें और पुनः हाथ में एक बताशा लें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए उसे दीपक के समीप ही छोड़ दें ।
ॐ यमदेवाय नमः । नैवेद्यं निवेदयामि ॥
अब हाथ में थोड़ा -सा जल लेकर आचमन के निमित्त निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए दीपक के समीप छोड़े ।
ॐ यमदेवाय नमः । आचमनार्थे जलं समर्पयामि ।
अब पुनः यमदेव को ‘ॐ यमदेवाय नमः ’ कहते हुए दक्षिण दिशा में नमस्कार करें ।
धनत्रयोदशी पर यमदीपदान क्यों ?
‘ स्कन्द ’ आदि पुराणों में , ‘ निर्णयसिन्धु ’ आदि धर्मशास्त्रीय निबन्धों में एवं ‘ ज्योतिष सागर ’ जैसी पत्रिकाओं में धनत्रयोदशी के करणीय कृत्यों में यमदीपदान को प्रमुखता दी जाती है । कभी आपने सोचा है कि धनत्रयोदशी पर यह दीपदान क्यों किया जाता है ? हिन्दू धर्म में प्रत्येक करणीय कृत्य के पीछे कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी होती हैं । धनत्रयोदशी पर यमदीपदान भी इसी प्रकार पौराणिक कथा से जुड़ा हुआ है । स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड के अन्तर्गत कार्तिक मास महात्म्य में इससे सम्बन्धित पौराणिक कथा का संक्षिप्त उल्लेख हुआ है ।
एक बार यमदूत बालकों एवं युवाओं के प्राण हरते समय परेशान हो उठे । उन्हें बड़ा दुःख हुआ कि वे बालकों एवं युवाओं के प्राण हरने का कार्य करते हैं , परन्तु करते भी क्या ? उनका कार्य ही प्राण हरना ही है । अपने कर्तव्य से वे कैसे च्युत होते ? एक और कर्तव्यनिष्ठा का प्रश्न था , दुसरी ओर जिन बालक एवं युवाओं का प्राण हरकर लाते थे , उनके परिजनों के दुःख एवं विलाप को देखकर स्वयं को होने वाले मानसिक क्लेश का प्रश्न था । ऐसी स्थिति में जब वे बहुत दिन तक रहने लगे , तो विवश होकर वे अपने स्वामी यमराज के पास पहुँचे और कहा कि ‘‘महाराज ! आपके आदेश के अनुसार हम प्रतिदिन वृद्ध , बालक एवं युवा व्यक्तियों के प्राण हरकर लाते हैं , परन्तु जो अपमृत्यु के शिकार होते हैं , उन बालक एवं युवाओं के प्राण हरते समय हमें मानसिक क्लेश होता है । उसका कारण यह है कि उनके परिजन अत्याधिक विलाप करते हैं और जिससे हमें बहुत अधिक दुःख होता है । क्या बालक एवं युवाओं को असामयिक मृत्यु से छुटकारा नहीं मिल सकता है ?’’ ऐसा सुनकर धर्मराज बोले ‘‘दूतगण तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है । इससे पृथ्वीवासियों का कल्याण होगा । कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को प्रतिवर्ष प्रदोषकाल में जो अपने घर के दरवाजे पर निम्नलिखित मन्त्र से उत्तम दीप देता है , वह अपमृत्यु होने पर भी यहॉं ले आने के योग्य नहीं है ।
मृत्युना पाश्दण्डाभ्यां कालेन च मया सह ।
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतामिति ॥ ’’
उसके बाद से ही अपमृत्यु अर्थात् असामयिक मृत्यु से बचने के उपाय के रूप में धनत्रयोदशी पर यम के निमित्त दीपदान एवं नैवेद्य समर्पित करने का कृत्य प्रतिवर्ष किया जाता है । .
यमराज की सभा
देवलोक की चार प्रमुख सभाओं में से एक है ‘यमसभा ’। यमसभा का वर्णन महाभारत के सभापर्व में हुआ है । इस सभा का निर्माण विश्वकर्मा जी ने किया था । यह अत्यन्त विशाल सभा है । इसकी १०० योजन लम्बाई एवं १०० योजन लम्बाई एवं १०० योजन चौड़ाई है । इस प्रकार यह वर्गाकार है । यह सभा न तो अधिक शीतल है और न ही अधिक गर्म है अर्थात् यहॉं का तापक्रम अत्यन्त सुहावना है । यह सभी के मन को अत्यन्त आनन्द देने वाली है । न वहॉं शोक , न बुढ़ापा है , न भूख है , न प्यास है और न ही वहॉं कोई अप्रिय वस्तु है । इस प्रकार वहॉं दुःख , कष्ट एवं पीड़ा के करणों का अभाव है । वहॉं दीनता , थकावट अथवा प्रतिकूलता नाममात्र को भी नही है ।
वहा सदैव पत्रित सुगन्ध वाली पुष्प मालाएँ एवं अन्य कई रम्य वस्तुएँ विद्यमान रहती हैं ।
यमसभा में अनेक राजर्षि और ब्रह्मर्षि यमदेव की उपासना करते रहते हैं । ययाति , नहुश , पुरु , मान्धाता , कार्तवीर्य , अरिष्टनेमी , कृति , निमि , प्रतर्दन , शिवि आदि राजा मरणोणरान्त यहां बैठकर धर्मराज की उपासना करते हैं । कठोर तपस्या करने वाले , उत्तम व्रत का पालन करने वाले सत्यवादी , शान्त , संन्यासी तथा अपने पुण्यकर्म से शुध्द एवं पवित्र महापुरुषों का ही इस सभा में प्रवेश होता है ।
रूपचतुर्दशी – महत्व
प्रातःकाल चन्द्रोदय के समय चतुर्दशी विद्यमान होने के कारण रूपचतुर्दशी का स्नान एवं दीपदान इसी दिन किया जाएगा । रूपचतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पूर्व अर्थात् तारों की छॉंव में स्नान करने का विधान है । स्नान तेलमर्दन एवं उबटन के पश्चात् किया जाना चाहिए । इसके पश्चात् अपामार्ग का प्रोक्षण तथा तुम्बी को अपने ऊपर सात बार घुमाने की क्रिया की जाती है । उसके पश्चात् यमतर्पण किया जाता है । यमतर्पण का विशेष महत्त्व है । चतुर्वगंचिन्तामणि में उल्लेख है कि यमतर्पण से वर्षभर के संचित पापों का नाश हो जाता है ।
रूपचतुर्दशी को प्रातःकाल देवताओं के लिए दीपदान किया जाता है । दीपदान पूर्वाभिमुख होकर किया जाना चाहिए । दीपदान के साथ अपने इष्टदेव एवं सर्वदेवों का पूजन किया जाता है ।
दीपावली पर प्रदोषकाल, वृषभलग्न अथवा सिंह लग्न में महालक्ष्मी का पूजन किया जाता है । महालक्ष्मी पूजन के साथ ही दीपमाला प्रज्वलन का कार्य होता है । उसके पश्चात् रात्रि में अखण्ड दीपक का प्रज्वलन करते हुए जागरण किया जाना चाहिए । जागरण के दौरान महालक्ष्मी के विशिष्ट स्तोत्र यथा; श्रीसूक्त, महालक्ष्मी-अष्टक, महालक्ष्मी-कवच, कमलाशतनामस्तोत्र एवं नाममन्त्रावली इत्यादि का एक या अधिक बार पाठ करना चाहिए । इसके अतिरिक्त पुरुषसूक्त, गोपालसहस्त्रनाम, गोपालशतनामस्तोत्र एवं नाममन्त्रावली, श्री काली अष्टोत्तरशतनामस्तोत्र एवं नाममन्त्रावली इत्यादि का भी पाठ करना चाहिए ।
रूपचतुर्दशी – उबटन से स्नान
रूपचतुर्दशी पर उबटन से स्नान, अपामार्ग का प्रोक्षण एवं यमतर्पण
रूपचतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पूर्व अर्थात् तारों से युक्त आसमान के नीचे स्नान करना चाहिए । यदि आपके समीप कोई नदी अथवा सरोवर है , तो प्रयास करें कि इस दिन का स्नान वहीं हो । इस दिन स्नान से पूर्व तिल्ली के तेल से शरीर की मालिश करनी चाहिए , क्योंकि इस दिन तेल में लक्ष्मी और जल में गंगा निवास करती है और प्रातःकाल स्नान करने वाला व्यक्ति यमलोक नहीं जाता है । यद्यपि कार्तिक मास में तेल मालिश का निषेध है , परन्तु वह निषेध कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के अलावा दिनों के लिए है । तदुपनान्त शरीर पर अपामार्ग का प्रोक्षण करना चाहिए तथा तुंबी (लौकी का टुकड़ा ), अपामार्ग (ओंगा या चिचड़ा ), प्रपुन्नाट (चकवड़ ) और कट्फल (कायफल ) इनको अपने सिर के चारों और सात बार घुमाना चाहिए , इससे नरक भय दूर होता है (पद्मपुराण ), तत्पश्चात् निम्नलिखित श्लोक का पाठ करे ।
सितालोष्ठसमायुक्तं सकण्टकलदलान्वितं । हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनः पुनः ॥
‘ हे तुंबी , हे अपामार्ग तुम बारबार फिराए ( घुमाए ) जाते हुए , मेरे पापों को दूर करो और मेरी कुबुद्धि का नाश कर दो । ’
स्नान के उपरान्त तुंबी , अपामार्ग आदि को घर के बाहर दक्षिण दिशा में विसर्जित कर देना चाहिए । स्नान के पश्चात् शुद्ध वस्त्र पहनकर तिलक लगाकर निम्नलिखित नाम मंत्रों से यमतर्पण करना चाहिए ।
१ . ॐ यमाय नमः ।
२ . ॐ धर्मराजाय नमः।
३ . ॐ मृत्यवे नमः ।
४ . ॐ अन्तकाय नमः ।
५ . ॐ वैवस्वताय नमः ।
६ . ॐ कालाय नमः ।
७ . ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः ।
८ . ॐ औदुम्बराय नमः ।
९ . ॐ दध्नाय नमः ।
१० . ॐ नीलाय नमः ।
११ . ॐ परमेष्ठिने नमः ।
१२ . ॐ वृकोदराय नमः।
१३ . ॐ चित्राय नमः ।
१४ . ॐ चित्रगुप्ताय नमः।
चतुर्दशी होने के कारण यम के चौदह नामें से तर्पण करवाया गया है ।
यमतर्पण काले तिलयुक्त शुद्ध जल से करना चाहिए । प्रत्येक मंत्र के साथ तीन बार तर्पण करना चाहिए । तर्पण जलांजलि से करना चाहिए और दक्षिणाभिमुख होकर करना चाहिए । यह तर्पण सव्य होकर करं ।
हेमाद्रि का कथन है कि यमतर्पण से वर्षभर संचित पाप क्षण भर में दूर हो जाते हैं । जिन व्यक्तियों के पिता जीवित है , वे भी यमतर्पण कर सकते हैं , क्योंकि पद्मपुराण के अनुसार यमतर्पण और भीष्म तर्पण कोई भी मनुष्य कर सकता है ।
स्नान के उपरान्त देवताओं का पूजन करके दीपदान करना चाहिए । दक्षिण भारत में स्नान के उपरान्त ‘कारीट ’ नामक कड़वे फल को पैर से कुचलने की प्रथा भी है । ऐसा माना जाता है कि यह नरकासुर के विनाश की स्मृति में किया जाने वाला कृत्य है । .
रूपचतुर्दशी – हनूमानुत्सव
हनूमान् के भक्तों को कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को उत्सव मनाना चाहिए । प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर निम्नलिखित संकल्प लेना चाहिए ।
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यैतस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टविंशतितमे
कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशे २०६७ वैक्रमाब्दे शोभन संवत्सरे कार्तिक मासे कृष्णपक्षे चतुर्दश्याम तिथौ शुक्रवासरे मध्याह्नसमये शुभ मुहूर्ते …
( अपने गोत्र का नाम लें ) गोत्रोत्पन्नो … ( अपने नाम का उच्चारण करें ) शर्मा / वर्मा / गुप्तः अहं मम शौर्यौदार्यधैर्यादिवृद्ध्य़र्थं हनूमत्प्रीतिकामनया हनूमत्महोत्सवमहं करिष्ये ।
हनूमान भक्त को इस दिन उपवास करना चाहिए । दोपहर में हनूमान् जी पर सिन्दूर में सुगन्धित तेल या घी मिलाकर उसका लेप (चोला ) करना चाहिए । तदुपरान्त चॉंदी के वर्क लगाने चाहिए । चोला चढ़ाने के उपरान्त हनूमान् जी का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए । इसके लिए सर्वप्रथम गणेश अम्बिका पूजन करें । तदुपरान्त षोडशमातृका एवं नवग्रह की पूजा करें ।
हनूमान् जी के पूजन से पूर्व सीताराम जी का पूजन भी अवश्य करना चाहिए । उक्त समस्त प्रक्रिया के पश्चात् प्रधान पूजा में हनूमान् जी के पूजन हेतु सर्वप्रथम हाथ में अक्षत एवं पुष्प लें तथा निम्नलिखित मन्त्र से हनूमान् जी का ध्यान करे ।
अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यं । सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ॐ हनूमते नमः ध्यानार्थे पुष्पाणि सर्मपयामि ।
अक्षता एवं पुष्प हनूमानजी के समक्ष अर्पित करें ।
आवाहनः हाथ में पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र से श्री हनूमान् जी का आवाहन करें ।
ॐ हनूमते नमः आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥
अब पुष्प समर्पित करें ।
आसनः निम्नलिखित मंत्र से हनूमान् जी को आसन अर्पित करे ।
तप्तकाञ्चनर्णाभं मुक्तामणिविराजितम् । अमलं कमलं दिव्यमासनं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ॥
आसन के लिए कमल अथवा गुलाब का पुष्प अर्पित करें । इसके पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए हनूमान् जी के समक्ष किसी पात्र अथवा भूमि पर तीन बार बल छोड़े और बोलें ।
पाद्यं , अर्घ्यं , आचमनीयं समर्पयामि
स्नानः इस मन्त्र के द्वारा गंगाजल अथवा अन्य किसी पवित्र नदी के जल से अथवा शुद्ध जल से हनूमान् जी को स्नान कराएँ ।
मन्दाकिन्यास्तु यद् वारि सर्वपापहरं शुभम् ।
तदिदं कल्पितं देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि ।
पञ्चामृत स्नानः शुद्धोदक स्नान के पश्चात् हनूमान् जी को पञ्चामृत से स्नान करवाएँ ।
पयो दधि घृतं चैव मधुशर्करयान्वितम् । पञ्चामृतं मयानीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , पंचामृत स्नानं समर्पयामि ॥
शुद्धोदक स्नानः निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए हनूमान् जी को पुनः शुद्ध जल से स्नान कराएँ
मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम् । तदिदं कल्पितं तभ्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि ॥
वस्त्रः इस मन्त्र से वस्त्र समर्पित करेः
शीतवातोष्णंसंत्राणं लज्जाया रक्षणं परम् । देहालंकरणं धृत्वा , मतः शान्ति प्रयच्छ मे ॥
ॐ हनूमते नमः , वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि ।
आभूषणः हनूमान् जी को आभूषण अर्पित करेः
रत्नकंकणवैदूर्यमुक्ताहारादिकानि च । सुप्रसन्नेन मनसा दत्तानि स्वीकुरुष्व भोः ॥
ॐ हनूमते नमः , आभूषणं समर्पयामि ॥
गन्ध : हनूमान् जी को गन्ध (रोली -चन्दन ) अर्पित करेः
श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् । विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , गन्धं समर्पयामि ॥
सिन्दूरः इसके पश्चात् निम्नलिखित मंत्र से हनूमान् जी को सिन्दूर अर्पित करेः
सिन्दूरं रक्तवर्णं च सिन्दूरतिलकप्रिये । भक्त्यां दत्तं मया देव सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , सिन्दूरं समर्पयामि ॥
कुंकुमः इसमें पश्चात् निम्नलिखित मंत्र से हनूमान् जी को कुंकुम अर्पित करेः
तैलानि च सुगन्धीनि द्रव्याणि विविधानि च । मया दत्तानि लेपार्थं गृहाण परमेश्र्वरः॥
ॐ हनूमते नमः कुंकुमं समर्पयामि ।
अक्षतः निम्नलिखित मंत्र से हनूमान् जी को अक्षत अर्पित करेः
अक्षताश्च सुरश्रेष्ठे कुमुमाक्ताः सुशोभिताः । मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्र्वरः॥
ॐ हनूमते नमः , अक्षतान् समर्पयामि ॥
पुष्प एवं पुष्पमालाः हनूमान् जी को पुष्प एवं पुष्पमाला अर्पित करे ।
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो । मयानीतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम् ।
ॐ हनूमते नमः , पुष्पं पुष्पमालां च समर्पयामि ॥
धूपः निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए हनूमान् जी को सुगंधित धूप अर्पित करे ।
वनस्पतिरसोद्भतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः । आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , धूपमाघ्रापयामि ॥
दीपः धूप के पश्चात् निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए हनूमान् जी को दीप दिखाएँ ।
साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया । दीपं गृहाण देवेशि त्रैलोक्यतिमिरापहम् ॥
ॐ हनूमते नमः , दीपकं दर्शयामि ॥
नैवद्यः निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए हनूमान् जी को नैवेद्य (प्रसाद ) अर्पित करे ।
शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च । आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , नैवेद्यं निवेदयामि ॥
उत्तरापाऽनार्थ हस्तप्रक्षालनार्थं मुखप्रक्षालनार्थं च जलं समर्पयामि ।
ऐसा कहते हुए जल अर्पित करें ।
ऋतुफलः अग्रलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए हनूमान् जी को ऋतुफल अर्पित करेः
इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव । तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥
ॐ हनूमते नमः , ऋतुफलं समर्पयामि ॥
ऋतुफलान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि ॥
इसके पश्चात् आचमन हेतु जल छोड़े ।
ताम्बुलः निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए लौंग इलायचीयुक्त पान चढ़ाएँ :
पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम् । एलालवङ्गसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ हनूमते नमः , मुखवासार्थे ताम्बूलवीटिकां समर्पयामि ।
दक्षिणाः इस मन्त्र के द्वारा हनूमान् जी को दक्षिणा चढ़ाएँ ।
हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः।
अनन्तपुण्यफलदमतः शांति प्रयच्छ मे ॥
ॐ हनूमते नमः , पूजासाफल्यार्थं दक्षिणां समर्पयामि ॥
आरतीः अन्त में एक थाली में कर्पूर एवं घी का दीपक प्रज्वलित कर आरती करें ।
पुष्पाञ्जलि और प्रदक्षिणाः अब पुष्पाञ्जलि और प्रदक्षिणा करे ।
नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च ।
पुष्पाञ्जलिर्मया दत्ता गृहाण परमेश्र्वरः॥
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च ।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिण पदे पदे ।
ॐ श्रीहनूतमे नमः , प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान् समर्पयामि ॥
समर्पणः निम्नलिखित का उच्चारणय करते हुए हनूमान् जी के समक्ष पूजन कर्म को समर्पित करें और इस निमित्त जल अर्पित करे ।
कृतेनानेन पूजनेन श्री हनूमत्देवतायै प्रीयतां न मम ॥
उक्त प्रक्रिया के पश्चात् श्रीहनूमानजी के समक्ष दण्डवत् प्रणाम करें तथा अनजाने में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा माँगते हुए , हनूमानजी से सुखसमृद्धि , आरोग्य तथा वैभव की कामना करें। .